धर्म का दूसरा मतलब न्याय भी कहा गया है। आप पढ़ रहे हैं धर्मराज के प्रति मेरे विचार (thoughts)। एक धर्मराज कहलाने वाला व्यक्ति, अपने ही दुश्मनों के साथ पहले मदिरा पान करता है, फिर जुआ खेलता है और बाद में अपने चारों भाइयों को तथा अपनी पत्नी को भी दांव पर रख देता है, सिर्फ इस लालसा में कि शायद अगले दांव में जीत हो जाय। इतना सब कुछ होने के बाद भी वह व्यक्ति धर्मराज कहलाया। मैं तो उसको धर्मराज कहने वालों को भी महान ही कहूंगा। उनको आंखों से सामने चाय में मक्खी दिख रही फिर भी पी रहे, जय हो...
अगर मोर मुकुट धारी की माने तो उनके अनुसार तो सब कुछ पहले से निश्चित है। तो ये भी निश्चित ही था कि धर्मराज जुआ खेलने बैठेगा और अपनी संपत्ति के साथ साथ आपने भाई और पत्नी को भी दांव पर लगा कर हार जाएगा। धर्मराज की पत्नी का भरी सभा में अपमान होना भी पहले से ही निश्चित था। बेचारे विपरीत पक्ष वाले तो सिर्फ निमित मात्र थे। उनको तो बेकार में बदनाम किया गया है। अगर एक साधारण इंसान को अपनी बीवी और भाइयों को जुए में दांव पर रख दिया जाए तो क्या ये समाज उस व्यक्ति को भी धर्मराज कहेगा?
जुआ में संपत्ति हार जाना तो खैर साधारण सी बात है। लेकिन भाइयों और बीवी को दाव पर रख देना, ये कौनसा धर्म है। मेरे विचार से तो एक साधारण इंसान भी ऐसा करने में संकोच करेगा। लेकिन धर्मराज ने इस कुकृत्य को करने में कोई संकोच नहीं किया। या फिर ये भी कह सकते हैं कि इंसान से तो गलतियां हो ही जाती है, मैं मानता हूं, लेकिन फिर उस इंसान को धर्मराज कहलाने का हक नहीं होता। फिर तो वो एक साधारण व्यक्ति ही हो गया।
अगर किसी व्यक्ति में थोड़ा सा भी विवेक है, तो वो इस तरह का कृत्य कभी नहीं करेगा और धर्मराज कहलाने के बाद तो इस कृत्य के बारे में सोचेगा भी नहीं। तो मेरा तो ये कहना है कि झूठी संज्ञाएं देना बंद करिए और सत्य को प्रकाश में लाइए। राजा के कुकृत्य को धर्म की संज्ञा देना बंद करिए।
0 टिप्पणियाँ